बींधा
तीखी बातों से
एक दूजे को
हरदम
अब देखो वो जख्म
भीतर कैसे पलता है
लाख बिसारना चाहो
कांटे सा कसकता है
टीस उठे हर वक़्त
मरहम काम ना करता है
नासूर बन न जाये कहीं
हरदम खून सा रिसता है
वक़्त पर माफ़ी
मांग ली होती,
रहता नहीं मलाल
तुम भी चुप बैठे रहे
जैसे फर्क क्या पड़ता है
अहम् हमारा टकराये
मन कांच दरकता है
मन आहत पर
चेहरा बुजदिल
मुस्कानों को ढोता
हर रिश्ते का
एक मुखौटा
चिपका लेता है
दुनिया जलती
हरदम कैसे
बिंदास ये
दिखता है
~ इंदिरा