Thursday, August 13, 2015

पिंजरे का पंछी

लाकर मुझको तूने था एक पिंजरे में डाला
सोने के नुपुर दिए पिंजरा  भी सोने वाला
मरना था आसान नहीं पिंजरे को ही अपनाया
तेरे  दाना पानी को ही अपना मैंने जाना
मुक्त गगन के पंछी मुझपे हँसा करते थे
पर तेरे प्यार के आगे सीखा शीश झुकाना
तेरी चाहत खत्म हुई  मन तेरा भरपाया
अब पिंजरे खोलके तू कहता है अब उड़ जाना
उड़जा जहाँ भी जी चाहे वापस मत तू आना
आदत हो गयी पिंजरे की अब कैसी आज़ादी
मैंने कब सीखा है अपने पंखों को फैलाना
~इंदिरा 

फलसफा

देखिये तो लोग
यहाँ कितने मूढ़ हैं
काटे  उसी डाल  को
जिसपर आरूढ़ हैं
जो भी बोया काटे वही
जो भी दिया पाये वही
जीवन का फलसफा
इतना भी  नहीं गूढ़ हैं
- Indira

अहंकार

ये गर्दन है कि झुकना नहीं चाहती
झुकना तो चाहिए
 भगवान के सामने धन्यवाद में
किसी के सम्मान में
किसी के प्यार में
कृतज्ञता बोध में
अनुग्रह में
पर ये अकड़ी रहती है
अहंकार में
खुद को सर्वश्रेष्ठ समझने के अभिमान में
जानती नहीं
जब अंत आता है
सब समान हो जाते हैं
क्या राजा क्या रंक
कोई चन्दन चिता चढ़े
या साधारण लकड़ी
जलते सभी हैं एक समान
पर जब तक जीवन है
ये रहती है मदहोश
एक छलावे में
खुद को  सर्वश्रेष्ट मानती
ये गर्दन है की झुकना नहीं जानती