Thursday, August 13, 2015

पिंजरे का पंछी

लाकर मुझको तूने था एक पिंजरे में डाला
सोने के नुपुर दिए पिंजरा  भी सोने वाला
मरना था आसान नहीं पिंजरे को ही अपनाया
तेरे  दाना पानी को ही अपना मैंने जाना
मुक्त गगन के पंछी मुझपे हँसा करते थे
पर तेरे प्यार के आगे सीखा शीश झुकाना
तेरी चाहत खत्म हुई  मन तेरा भरपाया
अब पिंजरे खोलके तू कहता है अब उड़ जाना
उड़जा जहाँ भी जी चाहे वापस मत तू आना
आदत हो गयी पिंजरे की अब कैसी आज़ादी
मैंने कब सीखा है अपने पंखों को फैलाना
~इंदिरा 

No comments:

Post a Comment